Wednesday, October 24, 2012

लग्गी से घास गढ़ने की आदत कब छूटेगी?



स्वच्छता पर बातें बनाने की नहीं, काम करने की जरूरत है

एक कहावत है- लग्गी से घास गढ़ना...(यानी किसी काम को सीधे करने के बजाय उलझा देना)। हमारे देश में सभी तरह के सरकारी काम इसी तर्ज पर निपटाने का रिवाज है। किसी गांव में दस-पचास सामूहिक शौचालय बनाने के बजाय हम वहां के लोगों को भाषणों की घुट्टी पिलाने पर लाखों रुपये खर्च कर देते हैं। हम काम करना नहीं चाहते लेकिन यह अपेक्षा जरूर रखते हैं कि दूसरे लोग अपना काम जरूर करें। यहां तक कि हमारी सरकार यह चाहती है कि देश के नागरिक अपने मौलिक कर्तव्यों, देश के संविधान, कानून और मर्यादाओं का स्वयमेव पालन करते रहें लेकिन सरकार और उसके नुमाइंदे इसकी जिम्मेवारी लेने और अपनी मर्यादा बनाए रखने पर ध्यान नहीं देते। इस तरह की सोच ही देश में समस्याओं की जड़ है। इसी सोच के तहत हम निर्मल भारत अभियान पर करोड़ों रुपये फूंक रहे हैं लेकिन शौचालय निर्माण पर इसे खर्च करने को तैयार नहीं हैं? जयराम रमेश पहले गांववालों के लिए भरपेट भोजन और स्वच्छ पानी की व्यवस्था तो कर दें, फिर शौचालय की व्यवस्था अपने आप हो जाएगी। दरअसल, निर्मल भारत जैसे अभियानों पर जितना पैसा फूंक दिया जाता है, उतने में हजारों-लाखों शौचालयों का निर्माण कराया जा सकता है। तो क्या ऐसे में इस तरह के अभियानों के नाम पर विदेशों से कर्ज और मदद लेकर पैसों की बर्बादी जरूरी है या इन पैसों का सदुपयोग करते हुए स्वच्छता और सामूहिक शौचालय की योजनाएं बनाने और उनके संचालन का दायित्व उठाना जरूरी है। सबसे गंभीर विसंगति हमारे देश में यही है कि हम बातें बनाना तो खूब जानते हैं लेकिन काम करना नहीं जानते। जितना हो-हल्ला शौचालय को लेकर मचाया जा रहा है, उतना शोर कभी जयराम रमेश ने देशवासियों को स्वच्छ पेयजल की व्यवस्था करने के लिए क्यों कभी नहीं मचाया? सवाल उठता है कि क्या सिर्फ अच्छी-अच्छी बातें बनाने और भाषणबाजी करने से ही समस्या का समाधान हो जाएगा? ग्रामीण विकास, पेयजल और स्वच्छता मंत्री जयराम रमेश सिर्फ गांवों में स्वच्छता की बात करते हैं जबकि शहरों और महानगरों में भी करोड़ों ऐसे कम आय वर्ग के लोग हैं जिन्हें शौचालय के लिए रेल पटरियों और झाड़ियों की शरण लेनी पड़ती है। सरकार के पास इतना बड़ा मंत्रालय है, राज्य सरकारों के पास बड़ा प्रशासनिक अमला है, तो क्या हम साफ-सफाई और शौचालय की व्यवस्था नहीं कर सकते? खुले में शौच करने वालों को गिरफ्तार कर जेल भेजने का अभियान तो सरकार चला सकती है लेकिन वह उनके लिए शौचालय की व्यवस्था नहीं कर सकती है? आखिर यह कैसी सोच है? हमारे हुक्मरान जूठन एकत्र करने और बांटने के लिए अलग विभाग और मंत्रालय बनाने की हसरत रखते हैं लेकिन वे सरकारी अनाज गोदामों में सड़ रहे और चूहों का पेट भर रहे अनाजों को भूखे-गरीब लोगों में बांटने की बात करने पर सुप्रीम कोर्ट को ही आंख दिखाने लग जाते हैं। इस तरह की सरकारी सोच ही हमारे देश को समस्याओं का देश बनाने की दिशा में ले जा रही है। सरकार को अपनी कार्यप्रणाली और सोच बदलने की जरूरत है। आजादी के इतने सालों बाद भी हमारी सरकारें सही ढंग से काम नहीं कर पा रही है और वह चाहती है कि आम लोग खुद ही सारा काम सही तरीके से करते रहें। सीधे काम करने के बजाय हम किसी अभियान को प्रक्रियाओं में उलझा देते हैं। फिर परिणाम होता है वही ढाक के तीन पात।


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