Wednesday, January 11, 2012

जांबाजों का सम्मान करें हम?

बहनों एवं भाइयों,

आज देश में जांबाजों का एक विशिष्ट तबका उभर रहा है। भारत के विकास में उनका अहम योगदान है। इन पर किसी की ओर से सवाल नहीं उठाया जा सकता है। मसलन यह सर्वपक्षीय बैठक में सर्वानुमति से पारित मसला है और इनके प्रति आदर भाव बनाये रखना हम भारत के लोगों का पुनीत कर्तव्य बनता है। देश में तमाम लोगों की जयंतियों और मुख्य दिवसों को मनाने की परंपरा सहस्त्राब्दियों से रही है लेकिन आज तक हम इस तबके के किसी विशिष्ट महापुरुष की न तो किसी पार्क में मूर्ति लगा पाए हैं और न ही चौक-चौराहों पर। दरअसल हम उन्हें यथोचित मान-सम्मान देने के अपने घोर दायित्व निर्वहन नहीं कर पा रहे हैं। संभव है इन सब विसंगतियों के पीछे कोई खास नजरिया या विचारधारा आड़े आ रही हो लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस बेहद विशिष्ट तबके के योगदान की उपेक्षा कर हम देश और समाज को सदियों पीछे ले जाने का कथित दुष्कर्म कर रहे है? देश की प्रगति अगर विदेशों में दिख रही है तो इसके पीछे हमारा आतिथ्य सत्कार का सुकर्म है। इसके लिए हम अपनी आबरू से खेलने पर भी संकोच नहीं करते। विदेशी पर्यटकों के समक्ष अपने ही भाई-बहनों की गरीबी का नंगा नाच दिखाने से परहेज नहीं करते। विदेशियों ने हमें ढाई सौ सालों तक लूटा और आज हम फिर से उन्हें आमंत्रित करने को आतुर हैं। हमें गुलामी से डर नहीं लगता और गुलाम मानसिकता अपनाना हमारा आदर्श वाक्य है। हम अपने देश समाज के लोगों के बीच जातिवाद, संप्रदायवाद, भाई-भतीजावाद और परिवावाद के नाम पर झगड़े-फसाद करने वाले जरूर हैं लेकिन विदेशी लुटेरों के प्रति सभी आदर भाव से ही पेश आभी ते रहते हैं। और यही हमारी समदर्शिता की पराकाष्ठा है।
आज अगर आपसे कोई यह सवाल पूछे कि देश की प्रगति के पीछे कौन-कौन से लोग हैं? तो शायद आप सटीक जवाब ढूंढ न पाएं। तमाम माथापच्ची के बावजूद आप वैज्ञानिकों, किसानों, व्यापारियों, व्यवसायियों, मजदूरों, नेताओं, प्रशासकों आदि आदि के नाम ही गिना पाने का दुस्साहस कर पाएंगे। जबकि वास्तव में इनका योगदान तो महज दैनन्दिन जरूरतों तक सीमित है। जैसे कि भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य, प्रशासन इत्यादि इत्यादि तक ही। और ये सभी चीजें आधुनिक युग में वास्तविक विकास के पैमाने हैं ही नहीं। आज विकास का अर्थ यह है कि कौन कितनी जल्दी लखपति से करोड़पति बन जाता है। करोड़पति है तो अरबपति बन सकता है। और अरबपति है तो खरबपति बन जाएगा... । और ऐसा करने के लिए जीवन में शार्टकट का उपयोग करना पड़ता है। विकास की अंधी दौड़ में जिसने भी विवेक का इस्तेमाल किया मानो वह पीछे जाने को उतारू है। हमें संबोधनों की परवाह नहीं, कमाई की चिंता रहती है। हम भ्रष्ट -अभ्रष्ट तौर-तरीकों से परहेज नहीं करते। हमें मालूम होता है कि हमें क्या करना है। आखिर हम दूसरे तबके की चिंताओं की परवाह भला करें भी तो क्यों? सच में हम जनता की नजरों में गिरना नहीं चाहते हैं। भला अपने स्टेटस को खोकर हम अपनी ही मिट्टी पलीद क्यों करें? हमारे तबके के लोग कौड़ियों के भाव जमीन खरीदकर उसे करोड़ों का बना देते हैं। मानो मिट्टी को छूकर सोना बना दिया हो। ऐसी जादुई छड़ी किसी विकासपुरुष के पास हो तो हम उन्हें जरूर अपना आदर्श बनाएं लेकिन दुर्भाग्य से इस जगत में ऐसा कोई खास तबका नजर नहीं आता। तमाम तबकों की तरह हम भी सिद्धांतविहीन जिंदगी जीने के आदी नहीं हैं। हमारे यहां आगे बढ़ने का तरीका यह है कि एकमात्र लक्ष्य धनोपार्जन का रखे और तमाम मान-अपमान, स्वाभिमान, गुण-अवगुण आदि को दूध में पड़ी मक्खी के समान समझे। मीरजाफर और जयचंद को आदर्श बनाएं। चाटुकारिता और खुशामदपना को अपना आंतरिक आभूषण और नियमों-कानूनों को ताक पर रख अपने उपासक की अनुमति को बाहरी भूषण के तौर पर प्रदर्शित करें। उपासना करने के लिए पश्चिम के देवतुल्य मानवों को यहां आने का आमंत्रण देने के महती कार्य को अंजाम देना अनिवार्य हो गया है। हम उन्हें दिल्ली और बनारस की गलियों में विचरते ही नहीं बल्कि कारोबार करते देखना चाहते हैं। चाहे माल देशी हो या विदेशी दुकान तो विदेशी ही होना चाहिए। ताकि उनकी परिक्रमा और चरणवंदना का सुख भी साथ-साथ मिल सके। उन्हीं की आदतों को अपनाना हमें मानव होने की अनुभूति दिलाने में सहायक लगता है। ऐसे में जब वे हमारे बीच ही नहीं होंगे तो फिर हम अपनी सदिच्छा का प्रकटीकरण भला कैसे कर पाएंगे? इसलिए हम सरकार से अपील करते हैं कि वह लोकमत या बहुमत की परवाह किये बगैर हमारी इच्छा को साकार रूप प्रदान करे। हम विशिष्ट तबके के लोग इसका तहेदिल से स्वागत करेंगे?
जय हिंद, जय जगत।